बदलाव की बयार में बह गया साबिर पाक  आस्था का स्वरूप,

बदलाव की बयार में बह गया साबिर पाक आस्था का स्वरूप,

*”बदलाव की बयार में बह गया आस्था का स्वरूप,,*

*प्रवेज़ आलम:- पिरान कलियर!*

समय के साथ बदली व्यवस्थाओं ने आस्था की नगरी का स्वरूप बदल डाला, तमाम विकास के दावे हुए, लाखो करोड़ो उड़ाए गए और आस्था बदलाव की भेट चढ़ गयी। कई सौ. बरस पहले हजरत मखदूम अलाउद्दीन अली अहमद साबिर पाक (रह.) पिरान कलियर की सरज़मी पर तशरीफ़ लाए और अपनी गहन तपस्या (इबादत) से इस सरजमीं को मुनव्वर कर दिया, बुराइयों पर हजरत की तलवार चली और एक के बाद एक बुराइयां समाप्त होती गयी। इसके बाद यादें इलाही में हजरत लीन हो गए,, कई सौ. बरस बाद हजरत मखदूम अलाउद्दीन अली अहमद साबिर पाक का मजार-ए-मुबारक तामीर हुआ और इसके बाद सालाना उर्स की शुरुआत की गयी। कलियर को *पिरान कलियर शरीफ* के नाम से दुनियाभर में जाना गया, देश विदेशों से अकीदतमंद आस्था की साथ इस नगरी में आने शुरू हुए तो आमदनी का जरिया बना, अकीदतमंद इस आस्था की नगरी में आकर दरबार में हाजरी लगाने पर फैजियाब हुए तो दरगाह साबिर पाक विश्व विख्यात दरगाह के रूप में सामने आई। लेकिन जैसे जैसे समय बीता आस्था का स्वरूप बदलता गया। अक़ीदत कारोबार में तरमीम होती गयी और कथित आस्थावानों की मानो बाढ़ आगयी। इसके बाद शुरू हुआ अक़ीदत का कारोबार, अनगिनत कथित सूफ़ी कुकुरमुत्तों की तरह उग गए, और देखते ही देखते ठेकेदारों की लम्बी चौड़ी जमात व्यवस्थाओं पर भारी पड़ने लगी। वही दूसरी ओर पिरान कलियर राजनीति की भेट भी चढ़ा, राजनेताओं ने धर्मनगरी की आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेकनी शुरू की तो तमाम तरह के दावे और वादे किए गए। पिरान कलियर को पांचवा धाम बनाने की घोषणा, मेडिकल कॉलेज से लेकर बड़े शिक्षण संस्थान जैसे दावों ने हवाई चक्कर लगाया और वक़्त के साथ ग्राम सभा से पिरान कलियर,, नगरपंचायत औऱ विधानसभा के नाम भी जानी गयी। राजनीतिक चश्मे से देखा जाए तो विकास दिखाई देता है लेकिन अगर चश्मा उतार कर देखे तो अव्यवस्थाओं का हुजूम नजर आता है। वही ठेकाप्रथा ने अक़ीदत को कारोबार बना दिया। इसके बाद लालच की बौछार हुई तो अपने अपने मफाद भी सामने आने लगें।
अलग राज्य बनने के बाद लोगों को छोटा राज्य होने के नाते व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद जगी लेकिन हुआ उसका उल्टा। अलग राज्य बनने के बाद दरगाह प्रशासन बेलगाम हुआ है। दरगाह शरीफ अधिकारियो का ऐसा सिंडीकेट बना कि तमाम शिकायतों के बावजूद निजाम नहीं बदला। दरगाह प्रशासन की मनमानी और ठेका प्रथा ने उर्स की शान समझी जाने वाली खानकाहें जो जायरीनों के आकर्षण का केन्द्र होती थी। जायरीनों को इन खानकाहों में निशुल्क ठहरने और खाने पीने की सुविधा प्राप्त होती थी। उनको दरकिनार कर दिया गया। वक्त के साथ एक बदलाव यह आया कि वर्ष 1962 में बतौर दरगाह प्रशासक आये वदूद अली खान ने सालाना उर्स के दौरान यहां आने वाली तवायपफों के नाच गाने पर रोक की लड़ाई शुरू की जो 1972 में जीती गयी। तब से अब तक कलियर में नाच गाने पर प्रतिबन्ध है लेकिन अब उर्स के दौरान झूला सर्कस में लोगों को रिझाने के लिए बार बालाओें को नचाने का सिलसिला शुरू हुआ, ये सब बदलाव का ही नतीजा है। जिसका नतीजा ये हुआ की राजनीतिक आड़ के चलते दरगाह की आमदनी ठिकाने लगाने के कई मामले प्रकाश में आए और वक़्त रहते दफन कर दिए गए।

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