बिस वर्षो में उत्तराखंड की इतनी समृद्धि नहीं हुई जितनी अकेले इस स्टिंग व ब्लैकमेल करने वाले कथित कलमकार की हुई है,,,,

बिस वर्षो में उत्तराखंड की इतनी समृद्धि नहीं हुई जितनी अकेले इस स्टिंग व ब्लैकमेल करने वाले कथित कलमकार की हुई है,,,,

बिस वर्षो में उत्तराखंड की इतनी समृद्धि नहीं हुई जितनी अकेले इस स्टिंग व ब्लैकमेल करने वाले कथित कलमकार की हुई है,,,,

सत्ता के गालियारों में घुसपैठ करने वाला एक शक्स जब चंद वर्षों बाद ‘बड़ा पत्रकार’ बन कर प्राइवेट प्लेन लेकर स्टिंग करने निकलता हो तो उसकी ‘तरक्की’ ‘ईमानदारी’ और ‘सरोकारों’ का आसानी से लगाया जा सकता है अंदाजा,,,,

उत्तराखण्ड

कुछ साल पहले तक सत्ता के गालियारों में घुसपैठ करने वाला एक शक्स जब चंद वर्षों बाद ‘बड़ा पत्रकार’ बन कर प्राइवेट प्लेन लेकर स्टिंग करने निकलता हो तो उसकी ‘तरक्की’ ‘ईमानदारी’ और ‘सरोकारों’ का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तराखंड के संदर्भ में सोशल मीडिया में वे खासे सक्रिय हैं। उनकी यह सक्रियता तब से ज्यादा बढ़ी है जबसे वे ‘ब्लैकमेलिंग’ के आरोप में जेल की हवा खा कर आए हैं।
अब जब पत्रकार से नेता बनने चले है ओर बात निकली है तो दूर तक जानी भी चाहिए। इस पत्रकार के बारे में बताया जाता है कि सोलह-सत्रह बरस पहले वे जब पहली बार पत्रकारिता करने देहरादून आए थे तो सड़क पर थे। मगर आज इस कथित कलमकार का ‘साम्राज्य’ देख कर ऐसा लगता है कि इतने वर्षों में तो पूरे उत्तराखंड ने भी इतनी तरक्की नहीं की होगी। राज्य बनने के वक्त उत्तराखंड का कुल बजट चार हजार करोड़ रुपये था जो आज 45 हजार करोड़ के पार जा चुका है, तब भी उत्तराखंड की इतनी समृद्धि नहीं हुई जितनी अकेले इस कथित कलमकार की हुई है।कैसे ? ईमानदारी से ?
अगर ईमानदारी से इतनी तरक्की होती है तो फिर अपने आस-पास किसी दूसरे पत्रकार की तरक्की का आकलन कीजिए, जो इस कथित पत्रकार से भी पहले से पत्रकारिता करते आ रहे हैं और हमेशा जनता के पक्ष की पत्रकारिता करते रहे हैं।
इन वर्षों में कथित पत्रकार एक न्यूज एंजेंसी से समाचार चैनल के सर्वेसर्वा बन गए और दूसरी तरफ सरोकारी पत्रकारिता करने वाले तमाम पत्रकार साथी लगातार संसाधन विहीन होते रहे। अन्य न्यूज संस्थानों ने उत्तराखंड के जनपक्षीय मुद्दे उठाते हुए सरकार की गलत नीतियों पर खुल कर कलम चलाई और पाठकों का भरोसा जीता। उत्तराखंड में काम करने वाले पत्रकार साथी आज अलग-अलग संस्थानों में शानदार काम कर रहे हैं। मगर उसके बंद होने की टीस सभी के मन में है। आज भी हम फिर से खड़े होने के बारे में सोचते हैं, मगर आर्थिक संसाधनों की बात आते ही बेबस हो जाते हैं।
चर्चा इस बात को लेकर भी है ओर सोचने वाली बात ये है कि हममें ऐसी क्या कमी रही होगी कि हम लोग भी इस जैसा मीडिया हाउस नहीं बना सके ? यही ना कि हमने तो उक्त कथित पत्रकार की तरह मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और अफसरों के बेडरूम तक एंट्री वाली पत्रकारिता की और न ही मोटी फाइलें लेकर सचिवालय में ‘शिकार’ तलाशे। दुखद है कि इस पर कोई कुछ नहीं बोलता।
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पर निशाना साध कर खुद को इस राज्य का हितैषी बताने में लगे हुए थे , मगर क्या उनसे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि इस पूरी सरकार में बाकी के मंत्री क्या दूध के धुले हैं ? इनमे से कुछ तो पत्रकार के परम मित्र हैं।
आज खुद को जनता की आवाज उठाने वाला पत्रकार होने का दम भरने वाले से क्या ये नहीं पूछा जाना चाहिए कि विजय बहुगुणा, बीसी खंडूरी या एनडी तिवारी के कार्यकाल में उनकी जनसरोकारिता कहां चली गई थी ?
राज्य के तमाम लोग जानते हैं कि विजय बहगुणा के दौर में उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। तब के सबसे भ्रष्ट अफसर के साथ कथित पत्रकार की कितनी गहरी दोस्ती थी, ये किसको नहीं मालूम ?
उसी दौर में अफसरों से सांठ-गांठ करके रुद्रपुर में ही एक बिल्डर को जमीन लुटाई गई, उस सौदे के पीछे कौन था, ये किसको नहीं मालूम ?
उसी दौर में प्रदेश में खनन के पट्टों की बंदरबाट में किस तरह दलाली खाई गई, ये किसको नहीं मालूम ?
और तो छोड़िए जब केदारनाथ में भयंकर विनाशलीला आई और देश दुनिया के लोग पीड़ितों के लिए प्रार्थना कर रहे थे, तब फर्जी एविएशन कंपनियां बना कर किसने आपदा के पैसों में दलाली और कमीशन खाया, ये किसको नहीं मालूम ?
सोचिए, जो मदद पीड़ित लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए भेजी गई, उस तक पर डाका डाला गया।
क्या खानपुर की जनता के सामने कथित समाजसेवी पत्रकार ने कभी इन मुद्दों का जिक्र किया, इन पर सवाल उठाया ? आज खुद को सच्चा और जनता का हितेषी खानपुर विधान सभा में कथित पत्रकार/समाज सेवी साबित करने वाले व्यक्ति से क्या ये सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए ?
उत्तराखंड में भ्रष्टाचार की शुरुआत तो राज्य बनने के दिन ही हो गई थी, मगर इसे असली खाद पानी विकास पुरुष कहे जाने वाले एनडी तिवारी के दौर में मिलना शुरू हुआ। भू-माफिया, शराब माफिया, मीडिया माफिया, शिक्षा माफिया, संस्कृति माफिया, एनजीओ माफिया तथा और भी न जाने किस-किस तरह के बेईमानों को एनडी राज में संरक्षण मिला, जो आज इस राज्य के सबसे बड़े दुश्मन होने की चर्चाएं व्याप्त हो रही है । संयोग देखिए कि इस उछल कूद करने वाले व्यक्ति की उत्तराखंड में एंट्री उसी दौर में हुई थी। क्या उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए जब इन सब बुराइयों के बीज पड़ रहे थे, सरकार इन्हें पनपा रही थी, तब उनकी सरोकारी पत्रकारिता कहां थी ? तब वे गनर लेकर क्या-क्या खेल कर रहे थे, किस तरह ‘सल्तनत’ खड़ी कर रहे थे ये उस दौर के पत्रकार अच्छी तरह जानते हैं। इसी तरह भुवन चंद्र खंडूरी के दौर में उन्होंने कितने सवाल उठाए ? निशंक के मुख्यमंत्री बनने पर इस व्यक्ति के भीतर का सरोकारी पत्रकार जागा और उसने उनकी पोल खोलनी शुरू की। मगर क्या ये सच नहीं है कि वह सरोकारी पत्रकारिता तब शुरू हुई जब निशंक राज में सहस्त्रधारा रोड स्थित अवैध कांप्लैक्स गिराया गया। इसी तरह हरीश रावत के राज में भी शुरुआती दौर में उन्होंने कितनी सरोकारी पत्रकारिता की ये सभी जानते हैं।
अब चूंकि त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में उनकी दाल नहीं गली तो उनके भीतर का सरोकारी पत्रकार फिर से जाग गया है। यहां पर कोंग्रेस व भाजपा की पूर्व सरकारों को किसी तरह की क्लीनचिट नहीं दी जा रही है। यहां पर असल मुद्दा इस कलमकार के ‘पिक एडं चूज’ वाले सलेक्टिव एजेंडे पर सवाल उठाना है।
एक और अहम बात का जिक्र यहां पर करना जरूरी है। अपनी प्रशस्ति में कथित कलमकार इन दिनों दावा कर रहे हैं कि उन्होंने उत्तराखंड में तमाम बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है, मगर क्या ये पूरा सच है ? उदाहरण के लिए दो बड़े घोटालों स्टर्डिया और पवार प्रोजेक्ट आवंटन घोटाले की बात करें तो बेशक उन्होंने इन घोटालों पर रिपोर्टिंग की, मगर क्या ये सच नहीं है कि उनसे पहले इन घोटालों पर अखबारों में खबरें छप गई थीं। अगर में गलत नहीं हूं तो योगेश भट्ट पहले पत्रकार थे जिन्होंने अमर उजाला में सबसे पहले ये घोटाले उजागर किए। बाद में अन्य पत्रकारों ने भी इन पर खबरें लिखीं। मगर उमेश कुमार अपना महिमामंडन इस तरह कर रहे हैं मानो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले वे एकमात्र व्यक्ति हैं। एक व्यक्ति खुद ही अपना ढोल पीट रहा है और उसकी असलियत जानते हुए भी लोग उसकी थाप पर नाच रहे हैं,चर्चाएं बहुत गर्म हो रही है । इससे दुखद और क्या होगा ?
यह दरअसल इस राज्य की जनता के साथ एक नए तरह का षड़यंत्र है। यह षड़यंत्र उन असली लोगों के संघर्ष को भी कमजोर करने की साजिश है जो राज्य के असल मुद्दों के लिए सच्चे दिल से संघर्ष कर रहे है, लिख-बोल रहे हैं, सड़क पर उतर रहे हैं और जेल भी जा रहे हैं। ऐसे संघर्षशील लोगों की आड़ में एक आदमी पावर सेंटर बनने की जुगत भिड़ा रहा है ताकि फिर से खेल शुरू कर सके। इस खतरनाक खेल को समझना बेहद जरूरी है,जिसकी चर्चा भी आम हो रही है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों की सरकारें इस राज्य की सबसे बड़ी दुश्मन हैं मगर इसका ये तो मतलब नहीं कि कथित पत्रकार की व्यक्तिगत खुन्नस को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई मान लिया जाए। यह जिस मुख्यमंत्री हटाओ एजेंडे पर चल रहे हैं हो सकता है कि उसमें कामयाब भी हो जाएं, मगर क्या इससे उत्तराखंड की बुनियादी समस्याओं का निदान हो जाएगा ?
यह सोचने और समझने की बात है कि जो व्यक्ति सरकार बनाने और गिराने के खेल में बिचौलिए की तरह भूमिका निभाता हो, जो व्यक्ति स्टिंग करने के बाद पत्रकारिता के उसूलों के खिलाफ जाकर अपने चैनल में प्रसारित करने के बजाय स्टिंग को एक राजनीतिक दल की चौखट पर दे आता हो, जो व्यक्ति पंद्रह वर्षों में अकूत संपत्ति का मालिक हो जाता हो, जो व्यक्ति कभी भी इस प्रदेश के असल सरोकारों से वास्ता न रखता हो उस व्यक्ति के झांसे में आकर हम कहीं जन संघर्षों की राह और मुश्किल तो नहीं कर रहे,यह उपरोक्त चर्चाएं जनपद हरिद्वार की खानपुर विधान सभा क्षेत्र की जनता में हो रही हैं।

:-शोशियल मीडिया से प्राप्त लेख,,,,

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