निर्मला सीतारमण के बजट का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो क्या भारतीय जनता पार्टी में ही समर्थन बेहद औपचारिक दिखाई दे रहा,,,,।एम हसीन सम्पादक की रिपोर्ट

निर्मला सीतारमण के बजट का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो क्या भारतीय जनता पार्टी में ही समर्थन बेहद औपचारिक दिखाई दे रहा,,,,।एम हसीन सम्पादक की रिपोर्ट

बजट में क्या कहना चाहती हैं निर्मला सीतारमण,,,,?

निर्मला सीतारमण के बजट का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो क्या भारतीय जनता पार्टी में ही समर्थन बेहद औपचारिक दिखाई दे रहा,,,,।

*एम हसीन सम्पादक परम् नागरिक की रिपोर्ट*

डॉ मनमोहन सिंह की आर्थिक उपलब्धियों का विश्लेषण नरेंद्र मोदी की आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में किया जाना उचित नहीं है। केवल इसलिए नहीं कि डॉ मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री थे और नरेंद्र मोदी का अर्थशास्त्र से कोई संबंध नहीं है। इसलिए भी नहीं कि डॉ मनमोहन सिंह उस आर्थिक मॉडल को मजबूत कर रहे थे जिसकी स्थापना खुद उन्होंने ही की थी। इसका कारण यह है कि डॉ मनमोहन सिंह की प्राथमिकताएं वे नहीं थी जो नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताएं हैं। मेरी नजर में सवाल उद्देश्य का है। बात केवल इतनी है कि डॉ मनमोहन सिंह की प्राथमिकता केवल अर्थव्यवस्था थी। इसी कारण वे बेहद मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए काम कर रहे थे। जबकि नरेंद्र मोदी की जो प्राथमिकताएं हैं उनमें अर्थव्यवस्था कहीं नहीं है। साथ ही, उन प्राथमिकताओं के पूरा होने के लिए अर्थव्यवस्था का बेहद कमजोर बल्कि तबाह होना भी ज़रूरी है। निर्मला सीतारमण के मैराथन बजट 2020 को मैं इसी नजरिए से देखता हूं। इसी कारण, केवल मेरे पास इस सवाल का जवाब है कि यह बजट उन समस्याओं का समाधान क्यों प्रस्तुत नहीं करता जो फिलहाल देश के सामने मौजूद हैं।

निर्मला सीतारमण के बजट का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तो क्या भारतीय जनता पार्टी में ही समर्थन बेहद औपचारिक दिखाई दे रहा है। यानी कहीं कोई उत्साह भाजपा में भी नहीं है। दूसरी ओर विपक्ष सहित तमाम अर्थ जगत बजट को लेकर निराशा प्रकट कर रहा है। अर्थशास्त्री इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इस बजट में बेरोजगारी दूर करने का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई है जिससे गिरती अर्थव्यवस्था के संभलने की कोई गुंजाइश बने। निराशा का एक कारण यह भी है कि बजट में जीएसटी को लेकर कुछ नहीं कहा गया है, जबकि जरूरत इस बात की महसूस की जा रही थी कि सरकार जीएसटी के प्रावधानों को स्पष्ट और आसान करे तो लोगों के लिए कारोबार करना आसान हो। कतिपय लोगों का कहना है कि सरकार के पास वह दृष्टिकोण नहीं है जिसके चलते वह समस्याओं का हल निकाल सके। ये लोग नरेंद्र मोदी और निर्मला सीतारमण को आर्थिक रूप से पूरे तौर पर अयोग्य घोषित कर रहे हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जिसका मानना है कि सरकार मौजूदा आर्थिक मॉडल को बदलना चाहती है। वह उदारवादी अर्थव्यवस्था को पूरे तौर पर उदारवादी बना देना चाहती है, अर्थात देश के अनौपचारिक अर्थव्यवस्था क्षेत्र (इनफॉर्मल इकनोमिक सेक्टर) को भी औपचारिक बना देना चाहती है। वह उस रास्ते पर जाना चाहती है जहां सरकार खुद कोई काम नहीं करती। यानी किसी भी प्रकार की औद्योगिक या सेवा गतिविधि को स्वयं संचालित नहीं करती। इसी कारण उसने समूचे सार्वजनिक क्षेत्र से पीछा छुड़ाने का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया है। उसने शिक्षा और चिकित्सा जैसी जिम्मेदारियों से भी पीछा छुड़ाने का मन बना लिया है। साथ ही वह हर प्रकार की व्यापारिक गतिविधि को कर के दायरे में लाना चाहती है। यही कारण है कि उसने डोसे की कीमत को ₹50 से घटाकर ₹40 करने का प्रावधान किया है। साथ ही यह भी सुनिश्चित कर दिया है कि अब डोसा के साथ चटनी नहीं मिलेगी। जिस ग्राहक को चटनी की जरूरत होगी उसे ₹15 अलग से खर्च करने पड़ेंगे। जाहिर है कि सरकार डोसा और चटनी को बिल्कुल अलग अलग परिभाषित करना चाहती है ताकि वह दोनों से ही अलग-अलग राजस्व वसूल कर सके।

लब्बो लुबाब यह है कि हर क्षेत्र में बजट का विश्लेषण केवल बजट को सामने रखकर किया जा रहा है। और यही वह चूक है जो हर विश्लेषक न केवल फिलहाल कर रहा है बल्कि पिछले 6 सालों से करता आ रहा है। मैं बजट को देश की आर्थिक आवश्यकता के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकताओं के दृष्टिकोण से देखना चाहता हूं और इसी कारण मेरी राय में यह एक औपचारिक बजट है। लेकिन मैं यह नहीं कहना चाहता कि यह केवल इसलिए प्रस्तुत किया गया है क्योंकि फरवरी के महीने में बजट प्रस्तुत करने की परंपरा है। बल्कि मैं यह कहना चाहता हूं कि वर्तमान परिस्थितियों में नरेंद्र मोदी सरकार के पास इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं था कि वह संसद में एक बजट, फिर भले ही वह महज औपचारिकता हो, प्रस्तुत करे। और इस प्रकार उस भ्रम को बनाए रखे जिस भ्रम को उसने पिछले 6 सालों से बना रखा हुआ है। वह भरम यह है कि सरकार सबकुछ लोकतांत्रिक तरीके से उन्हीं परंपराओं के तहत कर रही है जो परंपराएं पहले से स्थापित है। लेकिन यह भी सरकार की मजबूरी है कि वह अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए काम नहीं कर सकती।

लोग इस बात को भूल रहे हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार पिछले 6 सालों से कहती आ रही है कि उसका उद्देश्य “न्यू इंडिया” का निर्माण करना है। सवाल यह है कि वह “न्यू इंडिया” है क्या? दरअसल न्यू इंडिया ऐसा भारत है जिसमें औद्योगिक उत्पादन को लेकर स्वदेशी का विचार तो है लेकिन यह उत्पादन सरकार नहीं करती। इसके तहत तमाम सार्वजनिक क्षेत्र का निजी हाथों में पहुंचना तो जरूरी है, लेकिन यह भी सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि देश के सार्वजनिक क्षेत्र को खरीदने वाले “निजी” हाथ विदेशी ना हों। इसके तहत सैद्धांतिक रूप से 100 प्रतिशत एफडीआई की घोषणा की जाती है और व्यावहारिक रूप से ऐसे हालात पैदा किए जाते हैं कि कोई विदेशी निवेशक देश में निवेश करने के लिए तैयार ना हो। मेरे लिए यह बेहद ताज्जुब की बात है कि कोई नागरिकता अधिनियम संशोधन और बजट को एक साथ जोड़ कर देखने को तैयार नहीं है। मेरा सवाल यह है कि क्या यह है संयोग है कि बजट सत्र से ऐन पहले आयोजित होने वाले शीतकालीन सत्र में सरकार उस नागरिकता अधिनियम को संशोधित करती है जिस पर केवल देश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हंगामा मचा हुआ है? कैसे उम्मीद की जा सकती है कि जिस अधिनियम संशोधन को लेकर समूचा यूरोपियन यूनियन भारत सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने को तैयार है उस नागरिकता अधिनियम की मौजूदगी में कोई विदेशी निवेशक निवेश लेकर भारत आएगा। उस पर सरकार की मासूमियत यह है कि उसने साढ़े 28 हजार करोड रुपए के विदेशी निवेश का लक्ष्य बजट में निर्धारित किया है। यही स्थिति सेवा क्षेत्र की है। किसी के लिए यह चिंता की बात हो सकती है कि देश के छात्र पढ़ने के लिए लगातार विदेशों में जा रहे हैं। सरकार के लिए यह कोई चिंता की बात नहीं है, यह बजट के प्रावधानों से स्पष्ट दिखाई देता है।

पिछले 6 साल में सरकार द्वारा किए गए हर काम को इस कसौटी पर रखकर यूं ही परखा जा सकता है और साबित किया जा सकता है कि दरअसल सरकार का “न्यू इंडिया” हिंदू राष्ट्र है और यही उसकी प्राथमिकता है। इसी प्राथमिकता के तहत वह काम कर रही है और मौजूदा बजट भी इसी प्राथमिकता के तहत उठाया गया एक कदम है। पूरे संदर्भ में बस एक बात ऐसी है जो सरकार को डरा रही है। वह यह है कि लोकतंत्र और संविधान को लेकर देश की जनता की सोच वह नहीं है जो सरकार की है। सच बात तो यह है कि भाजपा में ही तमाम ऐसे लोग हैं जो हिंदू राष्ट्र की उस परिकल्पना को स्वीकार नहीं करते जिन्हें लेकर सरकार चल रही है। यही कारण है कि सरकार को अपना हर कदम लोकतंत्र और संविधान की परिधि में रहकर उठाना पड़ रहा है। सरकार की कामयाबी केवल इतनी है कि वह लोगों को यह यकीन दिलाने में सफल है कि वह देश को हिंदू राष्ट्र बनाने “नहीं” जा रही है। लेकिन वह अपने लक्ष्य से भटक भी नहीं रही है। निर्मला सीतारमण का बजट इसका अपने-अपने प्रमाण है।
इसी कारण मैं इस बजट से कोई उम्मीद नहीं करता। मुझे मालूम है कि यह उन समस्याओं का हल प्रस्तुत नहीं करता जो फिलहाल देश के सामने हैं।

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